Saturday, August 4, 2012

रक्षा बंधन : स्नेह का अनमोल रिश्ता

रक्षा बंधन : स्नेह का अनमोल रिश्ता
भाई-बहन के पावन, स्नेहमयी रिश्ते की गरिमा को व्यक्त करता है-रक्षाबंधन का पर्व। इससे जुड़ी अनेक पौराणिक मान्यताएं और ऐतिहासिक घटनाएं, इसमें निहित उदात्त भावना को प्रमाणित करती हैं। भले ही आज की भागम-भाग जीवनशैली और पश्चिमी अंधानुकरण ने इस पर्व के स्वरूप को थोड़ा बदल दिया है लेकिन इसमें निहित मूल भावना आज भी वैसी ही है, जो भाई-बहन के रिश्ते को सबसे विशिष्ट स्वरूप प्रदान करती है।

सं पूर्ण विश्व की पर्व परंपरा और संस्कृति में सबसे अनूठा, सबसे पवित्र भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है, रक्षाबंधन का त्योहार। वैसे तो पाश्चात्य देशों में मदर्स-डे, फादर्स-डे यहां तक कि सिस्टर्स-डे भी मनाया जाता है। लेकिन भाई-बहन के मधुर-प्रेम के लिए वहां कोई दिन, कोई उत्सव नहीं होता है। पारिवारिक संबंधों में भाई-बहन का रिश्ता अपने आप में कई मायने में विलक्षण है। एक ही माता-पिता की संतान होते हैं भाई-बहन। बचपन से ही साथ खेलना, खाना, रूठना, छीना-झपटी और माता-पिता की डांट के समय दोनों की एक-दूसरे को बचाने की कोशिश, इस संबंध की विलक्षणता को रेखांकित करती है। प्रति वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह पर्व, मानो संबंधों के नवीकरण का पर्व बन जाता है। विशेषत: तब, जब बहन विवाहित होकर अपनी ससुराल में पति व अन्य संबंधों के निर्वाह में व्यस्त हो जाती है। तब रक्षाबंधन (और भैयादूज) जैसे पर्व की दोनों को ही प्रतीक्षा रहती है।

पर्व में निहित भावना

रक्षाबंधन (जिसे राखी भी कहते हैं) में दो भाव प्रमुख हैं। पहला 'रक्षा-सुरक्षाÓ और दूसरा 'बंधनÓ। 'बंधनÓ शब्द में कोई नकारात्मकता नहीं होती। स्नेह के बंधन तो अत्यंत प्रिय होते है। भाई-बहन के संबंध के मूल में गहन सुरक्षाभाव, प्रेम, पवित्रता का संचार होता रहता है। 'रक्षा-सुरक्षाÓ का भाव व्यक्तिगत जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। विशेषत: स्त्री के लिए बहन के लिए-शारीरिक सुरक्षा जितनी जरूरी होती है, उतनी ही आवश्यक होती है भावात्मक सुरक्षा। इसीलिए भारतीय समाज और भारतीय परिवार-व्यवस्था में बहन के लिए 'भाईÓ का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है। छोटा भाई हो तो बहन मां की तरह उसे दुलार करती है और बड़ा हो तो उसका सम्मान। भाई का स्नेह, भाई का मार्गदर्शन, भाई का हर परिस्थिति में साथ-संबंधों को गहराई देता है। वास्तव में भाई-बहन के रिश्ते में जो मैत्रीभाव होता है-वह अद्भुत होता है। यही मित्रता, दोस्ती, स्नेह और सम्मान का बंधन जीवन को अर्थवान् बनाता है।

यहां यह भी स्मरणीय रहे कि अन्य संबंध और रिश्ते जैसे पति, पत्नी या मित्रादि दोबारा मिल सकते हैं। मित्र तो जीवन भर नए-नए मिलते रहते हैं पर सहोदर भाई या सहोदरा बहन का दोबारा मिलना असंभव होता है। वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण के मूच्र्छित होने पर श्रीराम यही कहते हैं-

देशे-देशे कलत्राणि , देशे-देशे वान्धवा:।

परंतु देशं न पश्यामि, यत्र भ्राता सहोदर: ।।

कहने का सीधा अर्थ है कि सगा भाई या सगी बहन को खो देने से बढ़कर कष्टदायक कुछ भी नहीं। अत: दोनों को ही उदारता पूर्वक यह संबंध निभाने का प्रयत्न करना होगा। और रक्षाबंधन जैसे पर्वों की सार्थकता को सिद्ध करना होगा। इस पर्व को मनाने के पीछे मूल भावना यही है कि बहन अपने भाई के दीर्घायु और कल्याण की कामना करे और भाई हर स्थिति में अपनी बहन के सुख, रक्षा और कल्याण के लिए सदैव कटिबद्ध रहे।

पर्व का पारंपरिक स्वरूप

बहन द्वारा भाई की कलाई पर बांधा जाने वाला रक्षासूत्र या राखी एक कच्चे सूत के धागे की हो सकती है, या कलावा (लाल-पीला सूत) रेशम या फिर चांदी और सोने तक की हो सकती है। पर भावनाएं तो अनमोल रहती हैं। दोनों ही नए वस्त्रों में सुसज्जित होते हैं। राखी कलाई पर बांधकर भाई के मस्तक पर टीका या तिलक (रोली चावल से) लगाया जाता है तो भाई भी स्नेहपूर्वक कुछ न कुछ उपहार देता है, बहन को। इन दोनों के संबंधों का उल्लास पूरे परिवार पर छाया रहता है। पूरी-खीर और ढेरों अन्य पकवान बनते हैं। आत्मीयता के इन बंधनों से पारिवारिक घनिष्ठता सुदृढ़ होती है। इसीलिए बहन और भाई को ही नहीं पूरे परिवार को प्रतीक्षा रहती है, इस त्योहार की। कुछ घरों में बेटियां भी पिता को 'रक्षासूत्रÓ बांधती हैं।

पौराणिक मान्यताएं

इस पर्व के मूल में अनेक पौराणिक गाथाएं प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार इंद्र जब वृत्रासुर से हारकर लौटे तो बहुत उदास थे। इंद्राणी ने बृहस्पति देव द्वारा पे्ररित होकर दोबारा युद्ध के लिए जाते समय इंद्र को रक्षासूत्र बांधा और पति की विजय सुनिश्चित की। महाभारत में शिशुपाल वध के बाद कृष्ण की अंगुली से खून बहता देख द्रोपदी ने अपनी साड़ी से एक टुकड़ा फाड़कर पट्टी बांधी और खून का प्रवाह रोका। कहा जाता है, इस रक्षासूत्र के एवज में कृष्ण ने भाई की भूमिका निभाते हुए चीरहरण के समय उनकी लाज बचाने का दायित्व निभाया।

 बदल रहा है
भाई-बहन का रिश्ता
प श्चिमी संस्कृति के लगातार संक्रमण से न केवल हमारी जीवनशैली परिवर्तित हुई है, साथ ही हम सबकी सोच भी पूरी तरह बदल रही है। रिश्तों का स्वरूप बदल रहा है। किसी समय तक परिवार में व्याप्त अदब-लिहाज के पर्दे झीने हुए हैं। हालांकि इससे रिश्तों की गरिमा को थोड़ा नुकसान तो हुआ है लेकिन साथ ही रिश्ते में आए खुलेपन से पारिवारिक रिश्ते में औपचारिकताएं मिटी हैं। इससे विशेष रूप से महिलाएं लाभान्वित हुई हैं। भाई-बहन के रिश्ते को ही देखें तो अब किशोरावस्था और उसके बाद युवावस्था के दौर से गुजर रहे भाई-बहन अब एक-दूसरे से दोस्त की तरह बात करते हैं। ऐसी बातें भी शेयर कर लेते हैं, जिन्हें शेयर करना पहले संभव नहीं हुआ करता था। आज के दौर के युवा भाई-बहन अब सेंटीमेंटल होने के बजाय प्रैक्टिकल होने को ज्यादा तरजीह देने लगे हैं। अगर किसी कारणवश राखी के अवसर पर वे एक-दूसरे से मिल नहीं पाते तो इसमें दुखी या नाराज होने के स्थान पर एक-दूसरे की स्थिति और मजबूरी समझने की कोशिश करते हैं। ई-मेल या मोबाइल के जरिए भी एक-दूसरे तक अपनी भावना पहुंचाने को वो गलत नहीं मानते हैं। इस बदलाहट को लाने में कुछ अन्य बातों ने भी अहम भूमिका निभाई है। जैसे पहले की तरह अब अधिकतर मां-बाप बेटा-बेटी में फर्क नहीं करते हैं। इसके चलते कहीं न कहीं घर में पल रहे बच्चे यह समझते हैं कि सभी को मम्मी-पापा बराबर प्यार करते हैं। जो सुविधाएं बेटे को दी जाती हैं, उतनी ही बेटी को भी प्रदान की जाती हैं। इससे बेटियों में सम्मान का भाव विकसित हुआ है। साथ ही संतान में संपत्ति का समान अधिकार मिल जाने से भी इस रिश्ते को निभाने के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। हालांकि कहीं कहीं इस वजह से भाइयों की दृष्टि में बहन के प्रति प्रेम व सम्मान घटा भी है। लेकिन यह मानसिकता भी कुछ समय बाद बदल जाएगी, इसमें संदेह नहीं। े

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